‘‘सूरज बड़जात्या के अंदर ‘चाइल्ड पैशन’ है.’’ - सारिका
बहुमुखी प्रतिभा की धनी अभिनेत्री सारिका के जीवन व कैरियर में काफी उतार चढ़ाव रहा है. उन्होंने पांच वर्ष की उम्र में बाल कलाकार के तौर पर कैरियर शुरू किया था. 15 वर्ष की उम्र में वह ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की फिल्म “गीत गाता चल”, में हीरोईन बन गयी थी. इन दिनों वह ‘राजश्री प्रोडक्शन निर्मित और सूरज बड़जात्या निर्देशित फिल्म ‘‘ऊंचाई “ को लेकर चर्चा में हैं. सारिका का मानना है कि ऊंचाई’ में अभिनय करने से एक सर्कल पूरा हो गया.
प्रस्तुत है सारिका से हुई बातचीत के अंश...
कुछ नहीं बदला. ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की सबसे बड़ी खास बात यह है कि यह फिल्मों से जुड़े होते हुए भी अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. इनकी अपनी एक अलग जगह है. यह स्व.ताराचंद जी के जमाने से चला आ रहा है. मैं जब ‘गीत गाता चल’ में अभिनय कर रही थी, उस वक्त हम उनसे इतना डरते थे कि हम उनसे बात ही नहीं करते थे. आज जिस कमरे में सूरज बड़जात्या जी बैठते हैं, उसी में ताराचंद जी बैठा करते थे.
ताराचंद जी ने तय कर लिया था कि हम फिल्में बनाएंगे, पर अपने हिसाब से पारिवारिक मूल्य व संस्कारों की बात करने वाली फिल्में बनाएंगे. हमारा अपना आफिस अलग अंदाज का होगा. हमारे आफिस में जो भी लोग काम करेंगें, उनमें यह यह खूबियाँ होगी. उनका व्यवहार इस तरह का होगा. ताराचंद जी के वक्त से पी के गुप्ता जी हैं. उन दिनों कहा जाता था कि राजश्री में सबसे पहले पी के गुप्ता जी से मिलना पड़ता है. वह अभी भी हैं.तो मेरा ज्यादातर जुड़ाव पी के गुप्ता जी के साथ रहता है. निजी स्तर पर गुप्ता जी बेहतरीन इंसान है. इसलिए निजी स्तर पर भावुकतापूर्ण जुड़ाव है. सच यही है कि ‘राजश्री प्रोडक्शन’ तो वैसी की वैसी ही है. आफिस भी वैसा ही है. कुछ लोग जरुर बदल गए हैं. जिस कमरे में मैने ‘गीत गाता चल’ के लिए स्क्रीन टेस्ट दिया था, उसी कमरे में मैने “ऊंचाई” के लिए लुक टेस्ट दिया. दोबारा राजश्री से जुड़कर अच्छा लगा. हम जो अपेक्षा लेकर वापस इससे जुड़े , वह पूरी हुई.
“ऊंचाई” में काम करके एक सर्कल पूरा हुआ. इस फिल्म से जुड़ने का फैसला इमोशनल रहा. इसके अलावा फिल्म में मेरे
माला त्रिवेदी के किरदार ने प्रेरित किया. यह किरदार बहुत अच्छा लगा. इस फिल्म की कहानी में सभी किरदारों का
अपना एक गुट है. जबकि माला आउट साइडर है. वह इन लोगों की यात्रा में जुड़ जाती है. पर वह कौन है? क्या है? कुछ
खास पता नहीं. ज्यादा बात नहीं करती. मुझे इस बात ने इस फिल्म को करने के लिए उकसाया. माला के किरदार में कई
परतें हैं. हर कलाकार सोचता है कि कुछ अलग करें, मगर इतना कुछ अलग आता नहीं है. कुल मिलाकर दस किरदार
हैं. सब उसी के इर्दगिर्द घूमते हैं. पर कलाकार की कोशिश होती है कि कुछ तो अलग है. माला काफी अलग तरह का किरदार है.
जी हाँ ! यह फिल्म दोस्ती की बात करती है. दोस्त व परिवार में अंतर होता है. इस फिल्म में तीन दोस्तों की कहानी है. जो कि उम्र दराज हैं. मगर यह अपनी दोस्ती के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते हैं. इनके चौथे मित्र का देहांत होता है. वह मरने से पहले इच्छा जाहिर करता है कि उसकी अस्थियां एवरेस्ट बेस पर बिखेरी जाएं. तो यह तीनों दोस्त अपनी उम्र की परवाह किए बगैर दोस्त की इच्छा पूरी करने के लिए निकल पड़ते हैं. देखिए,परिवार का अपना एक अलग पहलू होता है, जो दोस्ती में नहीं होता. दोस्ती में यही खूबसूरती होती है. इसका यह अर्थ नहीं है कि परिवार के रिश्ते खुबसूरत नहीं होते, मगर दोस्ती की जगह अलग है. मेरे अलग-अलग क्षेत्रों में कई दोस्त हैं और सभी ने मुझे किसी न किसी कदम पर इंस्पायर किया है.
सूरज बड़जात्या के अंदर ‘चाइल्ड पैशन है. बच्चों में काम करने का जो पैशन होता है, वह बतौर निर्देशक उनमें है. वह अपने काम में एकदम घुस जाते हैं. अगर कोई अच्छा दृश्य हो, तो बच्चों की तरह खुशी से ताली बजाते हैं. अमूमन होता यही है कि इंसान की जैसे उम्र बढ़ती जाती है, उसके अंदर का बच्चा गायब होता जाता है या यॅूं कहिए कि पीछे चला जाता है. उनका पैशन आज भी जबरदस्त है. वह जो कुछ लिखते हैं, जो कुछ निर्देशित करते हैं, उसमें कोई खोट नहीं होता. वह वही लिखते या निर्देशित करते हैं, जिसमें उनका अपना पूरा यकीन होता है. वह फिर उसे पूरी इमानदारी व दिल से बनाते हैं. यही उनकी फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत है. वह कभी यह नहीं सोचते कि फलां निर्देशक अपनी फिल्म में यह चीजें डाल रहा है, तो मैं भी अपनी फिल्म में उसे पेश कर दॅूं. वह हमेशा मौलिक और अपनी सोच के मुताबिक काम करना पसंद करते हैं. इसी वजह से उनकी फिल्म के विषयवस्तु में अथैंसिटी व इमानदारी नजर आती है. एक कलाकार के तौर पर उनके साथ काम करना सुखद अहसास ही देता है. मैंने तो सैकड़ों निर्देशकों के साथ काम किया है. हर निर्देशक की अपनी एक खास पहचान होती है. खास कार्यशैली होती है. इस बात को मैने अनुभव किया है. सूरज की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह कलाकार को उसके किरदार के साथ जोड़कर रखते हैं. वह टीम प्लेअर हैं. वह निर्देशक होने के नाते ऐसा
नहीं है कि कलाकार की बात को तवज्जो ही न दें. वह कलाकार की बात सुनते हैं और उस पर ध्यान भी देते हैं. वह हमेशा
सोचते हैं कि फलां कलाकार ने यह बात क्यों कही है? उसकी बात पर अमल करने से फिल्म कितनी बेहतर होगी?
वगैरह वगैरह...मेरा अपना मानना रहा है कि अच्छी परफार्मेंस के लिए कलाकार व निर्देशक का आपसी तालमेल निहायत ही जरुरी है. देखिए,हर कलाकार अपने किरदार के नजरिए से देखता है और निर्देशक किसी एक किरदार नहीं बल्कि वह सभी किरदारों के मिश्रण व कहानी के साथ पूरी फिल्म को देखता है. इसलिए दोनों के नजरिए का एक साथ कहीं न कहीं आना जरुरी है.
हमने भारत में कई जगहों के अलावा नेपाल में कई जगहों पर शूटिंग की. काफी बेहतरीन अनुभव रहे. हमने नेपाल में पूरे
एक माह अलग अलग जगहों पर शूटिंग की. हमने तेरह हजार मीटर की “ऊंचाई” की मनान पहाड़ी पर भी शूटिंग की. हमने
काफी चढ़ाइयां चढ़ीं. नेपाल में मेरी पसंदीदा जगह सबसे ऊंची पहाड़ी मनान ही है, जहां हमने शूटिंग की. यहां आप सीधे
नहीं जा सकते हैं. मनान इतनी खूबसूरत जगह है कि इसके रंग बदलते रहते हैं. कभी नीला, कभी हरा, कभी पीला, कभी
ब्राउन, कभी आरेंज तो कभी सुनहरा.
तीन सौ लोगो की हमारी युनिट थी. सूरज जी ने सब का बेहतरीन ख्याल रखा. जैसे जैसे हम उंची पहाड़ी की तरफ बढ़ रहे थे, वैसे वैसे ऑक्सीजन सहित कई चीजों की समस्याएं आती थी, तो उसका सामंजस्य बैठाने के लिए सूरज जी हम सभी को हर बार काठमांडू ले आते थे. उसके बाद फिर वापस हम पहाड़ की तरफ नई उर्जा के साथ बढ़ते थे. वहां गाड़ियां तो जा ही नहीं सकती थी. हम सभी को अपने पैरों के बल पर ही आगे बढ़़ना होता था. हमारी क्रिएटिब डायरेक्टर सुरभि कहती है कि हमारे पांव ही हमारे ट्रांसपोर्ट थे. हमने सिर्फ अभिनय किया और खूब चले. मुझे अच्छी तरह से याद है...बीसवां दिन था. मैंने अपने आप से वादा किया था कि, “सारिका, दस दिन और चल ले, फिर वादा है तुझे चार पांच साल नहीं चलाउंगी”.
आपने “ऊंचाई” में अमिताभ बच्चन, बोमन ईरानी व अनुपम खेर के साथ काम किया है.क्या कहना चाहेंगी?
-जी हाँ ! ऊंचाई में मेरे ज्यादातर दृश्य अनुपम खेर, बोमन ईरानी व अमिताभ बच्चन के साथ ही हैं. काम करने के अनुभव सुखद रहे.
भारतीय सिनेमा से परिवार व रिश्ते गायब हो गए हैं?
ऐसा नहीं..पर कम जरुर हुए हैं. मैं मानती हूँ कि फिल्मों से घाघरा चोली व गाँव खत्म हो गए. अब ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘मदर इंडिया,’ व ‘कारवां’ जैसी फिल्में कहां बनती हैं? पर यह सारा रिफलेक्शन समाज का ही है. सिनेमा है तो समाज का ही प्रतिबिंब. फिल्म की विषयवस्तु की प्रेरणा तो समाज से ही मिलती है. आपके आस पास जो हो रहा है, उसी पर आप सिंनेमा बनाते हैं. क्योंकि आपका सिनेमा देखने वाले लोग भी वही हैं.
आपने बतौर एसोसिएट निर्देषक फिल्म ष्ष्कुरूथीपुनालीष् की थीण्उसके बाद आप बतौर निर्देशक काम कर सकती
थी?
निर्देशक के तौर पर काम करने का मेरा दिल ही नहीं हुआ. कहीं कोई बात हो या ऐसी कोई कहानी हो, जो मुझे झकझोर
दे और निर्देशन की इच्छा जागे, तभी कुछ हो सकता है. मतलब जब मेरा दिमाग कहे कि यह कहानी मैं अपने हिसाब से
बोलना चाहती हॅूं
ओटीटी और सिनेमा के बीच जो अंतर है,उसका कितना असर लोगो पर पड़ता है?
देखिए, मैने सिनेमा व टीवी सीरियल के अलावा हाल ही में ओटीटी पर एक वेब सीरीज में भी अभिनय कर लिया. मेरा
मानना है कि दोनों का दर्शकों पर असर पड़ता है. ओटीटी और सिनेमा दोनो विरोधी दिशा में हैं. हर इंसान सिनेमा या
ओटीटी के कार्यक्रम मनोरंजन व सुखद अनुभव के लिए देखता है. तो जहां तक अनुभव का सवाल है तो जो अनुभव सिनेमाघर में बैठकर फिल्म देखने का आता है, वह ओटीटी पर कार्यक्रम या फिल्म देखते समय नही आ सकता. मसलन हमारी फिल्म “उंचाई” है. इसे जिन लोकेशन पर जिस भव्यता के साथ फिल्माया गया हैउसका आनंद तो सिनेमाघर के अंदर बड़े परदे पर देखते हुए ही मिल सकता है. हमने तेरह हजार फिट की “ऊंचाई” पर जाकर अति सुंदर लोकेशन पर जाकर “ऊंचाई” को फिल्माया है, इस तरह की लोकेशन पर हर इंसान नही पहुँच सकता. पर सिनेमाघर में इस फिल्म को देखकर उसका अस्सी प्रतिशत अनुभव तो ले सकता है.‘“ऊंचाई” देखने का असली अनुभव ओटीटी पर नहीं मिल सकता. इसलिए मैं हर किसी से कहती हूँ कि वह फिल्म को सिनेमाघर में जाकर देखें, ओटीटी पर आने का इंतजार न करें. ओटीटी पर आप विश्व का वह सिनेमा देख सकते हैं, जो कि सिनेमाघरों में नही आ पा रहा है. तो ओटीटी व सिनेमा दोनों की अलग अलग यूएसपी है. मुझे लगता है कि यदि आप समझदार दर्शक हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि किस तरह सिनेमा व ओटीटी के बीच सामंजस्य बैठाना है.
जी हाँ !हम सभी को एक-दूसरे के कार्यक्रम की जानकारी रहती है. जैसे कि आज श्रुति चेन्नई में शूटिंग कर रही है.मैं आप
लोगों से बातचीत कर रही हॅूं. जबकि अक्षरा विदेश में है.